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भारतीय मीडिया में नेपाल

अभी 5 सितंबर को आईबीएन-7 चैनल ने नेपाल पर तकरीबन आधा घंटे की एक रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट में बताया गया था कि नेपाल के माओवादी भारत पर हमले की तैयारी में लगे हुए हैं और इस बात के लिए भारत सरकार को लताड़ा गया था कि वह कितनी लापरवाह है. इस रिपोर्ट में ऐंकर ने अपनी आवाज में भरपूर नाटकीयता लाते हुए एलान कि  ‘देश के दुश्मन सरहद पर लामबंद होने लगे हैं.’ इसके बाद स्क्रीन पर फौजी वर्दी में परेड करते जनमुक्ति सेना के सैनिकों को दिखाया जाता है और ऐंकर की आवाज गूंजती हैµ ‘हम बात कर रहे हैं नेपाल के माओवादियों की जो भारत को अपना दुश्मन नंबर वन मानते हैं. नेपाल के घने जंगलों में जंग की पूरी तैयारी चल रही है. लोगों को ट्रेनिंग दी जा रही है. लड़कियाँ हों या खेतों में काम करने वाले किसान-इनके हाथों में बंदूकें हैं. ये खतरनाक नजारा देखने को मिला माओवादियों के पोलिटिकल विंग्स और ट्रेनिंग कैंप्स में. आतंक के ठिकानों से देखिए एक खास रिपोर्ट.

इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की एक बाइट दिखायी गयी है जिसमें उन्होंने चेतावनी दी है कि आतंकवादी कुछ प्रमुख सैनिक ठिकानों और परमाणु केन्द्रों को आने वाले दिनों में अपना निशाना बना सकते हैं. इस बाइट के खत्म होते ही फिर ऐंकर की आवाज गूंजती हैµ ‘ये चेतावनी प्रधानमंत्राी मनमोहन सिंह ने देश की खुफिया एजेंसियों के हवाले से दी और कहा कि आतंकवादी देश की एकता और अखंडता को चोट देने की फिराक में लगे हैं. प्रधानमंत्राी ने राज्य सरकारों समेत आम लोगों को सावधान रहने को कहा लेकिन इनकी सरकार को उस खतरे की जरा भी परवाह नहीं जिसकी दबिश सीमा पर महसूस की जा रही है. बारूद भरा जा चुका है बस चिंगारी भड़कने की देर हैं।’

अब रिपोर्टर की बारी है. वह बताता है कि ‘देश की सुरक्षा के लिए सिरदर्द बन चुके नेपाली माओवादियों की तलाश में आईबीएनµ7 की टीम ने सरहद के पार धावा बोला और हम निकल पड़े माओवादियों के ट्रेनिंग कैंप के लिए. मुझे और मेरे कैमरामैन को तीन तरफ से खतरा थाµ नेपाल पुलिस, नेपाली सेना और खुद माओवादी.’ आगे बताया गया है कि कितनी कठिनाई से यह रिपोर्टर अपने कैमरामैन के साथ माओवादियों के सैनिक कैंप तक पहुँचा. यहाँ यह उल्लेख प्रासंगिक होगा कि अप्रैल के जनआंदोलन के बाद युद्धविराम की अवधि बढ़ाने के साथ ही माओवादी नेतृत्व ने कुछ दिनों के लिए जनमुक्ति सेना के कैंपों को आम जनता के लिए खोल दिया था ताकि लोग देख सकें और राजा की सेना का भय उनके मन से दूर हो सके. उन दिनों इन कैंपों की ढेर सारी तस्वीरें देश-विदेश के अखबारों में छपीं और कई चैनलों ने भी इस अवसर का लाभ उठाया.

इस रिपोर्ट में दो नक्शे दिखाये गए हैं जिनके बारे में दावा किया गया है कि इन नक्शों को माओवादियों ने जारी किया है और इनमें अल्मोड़ा से लेकर हरिद्वार और पीलीभीत तक ढेर सारे ऐसे शहर हैं जिन्हें माओवादी नेपाल का हिस्सा बताते हैं और इनका कहना है कि ‘अगर भारत ने जमीन वापस नहीं की तो फिर सीधे युद्ध होगा।’ रिपोर्टर का कहना है कि यह माओवादियों की ‘वृहत् नेपाल’ (ग्रेटर नेपाल) योजना का एक अंग है.
पूरी रिपोर्ट बेहद उत्तेजक और सनसनीखेज ढंग से प्रस्तुत की गयी है. यह न केवल कपोलकल्पित है बल्कि इसमें धोखा-धड़ी का सहारा लिया गया है. जिस नक्शे को दिखाया गया है वह 1815 से पहले का यानी सुगौली संधि से पूर्व का नक्शा है. ब्रिटिश भारत 1815 में नेपाल के राणा शासकों के साथ जो संधि की उसे फलस्वरूप नेपाल का एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत को मिल गया. जिन दिनों सुभाष घीसिंग ने गोरखालैंड का आंदोलन शुरू किया गया था उन दिनों गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने ‘वृहत् नेपाल’ का नारा दिया था और इस नक्शे में केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगटोक, देहरादून, हरिद्वार, पीलीभीत, नैनीताल से लेकर पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग तक पर नेपाल का दावा जताया था. आईबीएन-7  के रिपोर्टर ने उसी नक्शे को दिखाकर बताया है कि यह माओवादियों द्वारा जारी किया गया नक्शा है. पिछले दस वर्षांे के दौरान माओवादियों के जो भी दस्तावेज या वक्तव्य सामने आये उनमें से किसी में भी यह उल्लेख नहीं है कि माओवादी सुगौली संधि के समय खोये गये अपने भू-भाग को वापस लेना चाहते हैं. बेशक, पिछले पचास-साठ वर्षों के दौरान ‘काला पानी’ जैसे विवादित भू-भाग को भारत से वापस लेने की चर्चा होती रही है और वह भी नेपाल (एमाले) द्वाराµखास तौर पर चुनाव के समय. अपनी रिपोर्ट के अंत में इस चैनल के रिपोर्टर ने कहा कि ‘माओवादियों का साफ एलान है कि भारत ने उसकी जो भी जमीन छीनी है उसको हासिल करने के लिए वे सशस्त्रा युद्ध तक को तैयार हैं.’

इस रिपोर्ट से दो बातें स्पष्ट होती हैं. पहली यह कि इस रिपोर्टर को शायद यह पता नहीं है कि नेपाल में अभी क्रान्ति संपन्न नहीं हुई है और राजतंत्रा के खिलाफ माओवादियों का संघर्ष जारी है. इसने बेशक शान्तिपूर्ण रास्ता अख्तियार कर लिया है लेकिन इनकी जनमुक्ति सेना अभी पूरी तरह सजग है और किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए, न कि भारत पर आक्रमण के लिए, नियमित, अभ्यास, परेड आदि करती रहती है. दूसरी बात यह है कि भारत के बारे में और माओवादियों के सत्ता में आने की स्थिति में भारत के साथ उनके संबंधों के बारे में इस रिपोर्टर के पास कोई जानकारी नहीं है. उसे माओवादियों के शीर्ष नेता प्रचण्ड के बहुचर्चित वक्तव्य की भी जानकारी नहीं है जिसमें उन्होंने कहा था कि भावी नेपाल में नेपाली सेना को एक लाख से घटाकर महज 20 हजार कर दिया जाएगा. इसके पीछे उनका तर्क था कि नेपाल के दो ही पड़ोसी देश हैंµ भारत और चीन. संभावित दुश्मन भी ये दोनों देश ही हो सकते हैं. नेपाल अपनी सैन्य क्षमता मंें कितनी भी वृद्धि कर ले तो भी वह इसमें से किसी भी संभावित दुश्मन की सैन्य क्षमता का मुकाबला नहीं कर सकता. ऐसी हालत में एक लाख की सेना रखने कोई औचित्य नहीं है. देश में आपदा की किसी स्थिति में 20 हजार सैनिक काफी होंगे.

इस रिपोर्टर ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि माओवादियों का महिलाओं के प्रति क्या दृष्टिकोण है? अगर उसने थोड़ा होमवर्क किया होता तो यह नहीं कहता कि ‘इस कैंप में मुझे मशीनगन उठाये तमाम लड़कियाँ दिखीं. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के कैंप में जरूरी नहीं है कि लड़कियाँ सिर्फ सैनिकों के लिए खाना पकाएंगी और उनकी वर्दियाँ धोएंगी. बल्कि इन्हें मोर्चे के वक्त सीधे लड़ने की ट्रेनिंग दी जाती है.’

झूठ और गलत सूचनाओं से भरपूर इस रिपोर्ट को जारी करने के पीछे क्या मकसद हो सकता है? पिछले कुछ महीनों सेµखासतौर से अप्रैल के एतिहासिक जनआंदोलन के बाद नेपाल की राजनीति बहुत टेढ़े-मेढ़े रास्तों से गुजर रही है. माओवादियों और सात दलों के गठबंधन के बीच संबंधों को कटु बनाने में वे शक्तियाँ काफी सक्रिय हैं जो यथास्थितिवादी हैं और यह नहीं चाहतीं कि राजतंत्रा पूरी तरह समाप्त हो. 16 जून 2006 को सात दलों और माओवादियों के बीच आठ सूत्राी समझौते के तुरत बाद नेपाल में अमेरिका के राजदूत जेम्स मोरिआर्टी ने इस समझौते का विरोध किया था और कहा था यह तो  पूरी तरह माओवादियों का एजेंडा है. यही बात उन्होंने पिछले वर्ष नवंबर में संपन्न 12 सूत्री सहमति पर भी कही थी. अमेरिका लगातार इस प्रयास में रहा कि संसदीय दल और राजा ज्ञानेन्द्र आपस में कोई समझौता कर लें और दोनों मिलकर माओवादियों का सफाया करें लेकिन नेपाल की जमीनी सच्चाई को समझते हुए हुए सात दलों ने गिरिजा प्रसाद कोइराला के नेतृत्व में माओवादियों के साथ समझौता किया और राजतंत्रा के खिलाफ एक ऐतिहासिक जनआंदोलन संभव हो सका.

अमेरिकी नीति की यह करारी हार थी. लेकिन अमेरिका इसके बाद भी चुप नहीं बैठा और उसने सात दलों के बीच अपने समर्थक तैयार किये. यह प्रक्रिया अभी जारी है. राजतंत्रा समर्थन या माओवाद विरोधी ताकतें हर तरह के दांवपेंच का इस्तेमाल कर रही हैं. मीडिया युद्ध भी इसी दांवपेंच का एक हिस्सा है.

अभी एक माह पूर्व ही, 1 अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया के दिल्ली और मुंबई संस्करणों में एक ही दिन में तीन ऐसे समाचार प्रकाशित हुए जो झूठ पर आधारित थे और जिनका मकसद नेपाल के माओवादियों के खिलाफ भारतीय जनमत तैयार करना  था. इनमें एक खबर का शीर्षक था ‘माओवादी भारतीयों को खदेड़ रहे हैंः नेपाल में एक नये खतरे का अंदेशा.’ उसी दिन मुंबई संस्करण ने शीर्षक दिया ‘माओवादियों की वजह से नेपाल छोड़ने को मजबूर भारतीय.’ इसी अखबार ने इससे संबद्ध तीन और समाचार दिये जिनके शीर्षक थेµ ‘जो हमारी बात नहीं मानेगा उसे हम गोली मार देंगे.’, ‘हम बहुत डर गये थे’ और ‘भारतीयों के लिए मुसीबत’.

इन समाचारों के पीछे नेपाल के एक पाँच सितारा होटल में काॅसिनों चलाने वाले एक भारतीय व्यापारी और उसके कर्मचारियों के बीच पैदा विवाद था. ‘ट्रबुल फाॅर नेपालीज हियर’ शीर्षक समाचार में एक अज्ञात स्रोत के हवाले से बताया गया था कि ‘अभी तक भारत सरकार बहुत धैर्य के साथ चीजों को देख रही है. लेकिन अगर घटनाओं ने कोई गलत मोड़ लिया तो भारत सरकार को कड़ा कदम उठाना पड़ेगाµखास तौर पर उन हालात में जब भारतीय हितों को चोट पहुँचती हो.’ इस प्रकार इस समाचार के रिपोर्टर ने पाँच सितारा होटल में जुआघर चलाने वाले एक व्यापारी के हित को ‘भारतीय हित’ बता दिया और आगे चेतावनी दी कि ‘अगर भारतीय व्यापारियों को खतरा महसूस हुआ और उन्हें नेपाल छोड़ना पड़ा तो निश्चय ही जो शून्य पैदा होगा उसे भरने के लिए चीन वहाँ पहुँच जाएगा.’ एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया कि ‘भयभीत भारतीय समुदाय के नेता सुरक्षा पाने के लिए काठमांडो स्थित भारतीय दूतावास में गये. हालाँकि हमारे विदेश कार्यालय ने इस बात की पुष्टि की है कि अंध राष्ट्रवादी माओवादियों ने भारतीयों को खदेड़ना शुरू कर दिया है तो भी विदेश विभाग ने सार्वजनिक तौर पर कोई कदम नहीं उठाया. ऐसा लगता है कि जब यह खतरा सारी सीमाएँ पार कर जाएगा तब सरकार चेतेगी.’

नयी दिल्ली में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने. 1 अगस्त को ही एक बयान जारी किया जिसमें कहा गया था कि ‘सुनने में आया है कि भारतीय समुदाय के नेता सुरक्षा के लिए काठमांडो स्थित दूतावास पहुँचे हैं लेकिन यह बात गलत है. इसका तथ्यों से कुछ भी लेना-देना नहीं है.’ जाहिर है कि टाइम्स आॅफ इंडिया ने जो खबर प्र्रकाशित की थी वह पूरी तरह बेबुनियाद थी. लेकिन उसने अगले दिन मंत्रालय के प्रवक्ता की इस टिप्पणी को कहीं स्थान नहीं दिया.

ऐसा ही मामला इस वर्ष मई में भी देखने में आया जब नेपाल के वीरगंज स्थित कुछ कारखानों में औद्योगिक विवाद को लेकर पैदा असंतोष के बारे में भारतीय अखबारों ने इस तरह की खबरें प्रकाशित कीं जिसमें बताया गया था कि माओवादियों के कारण भारतीय हितों को खतरा पहुँच रहा है. अखबारों ने इसे एक गलत प्रक्रिया की शुरुआत कहा था. उस समय भी भारत के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया. विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया था कि ‘इस आशय की खबरें देखने को मिली हैं कि हेटौडा-बीरगंज क्षेत्रा में जो भारतीय औद्योगिक समूह काम कर रहे हैं वहाँ माओवादियों द्वारा जबरन वसूली की जा रही है. इस सिलसिले में हम बताना चाहेंगे कि यह न तो कोई सिलसिलेवार घटना है और न कोई ऐसी प्रक्रिया है जिसको लेकर चिंतित हुआ जाए.’

लगभग ऐसी ही घटना एक बार फिर दुहराई गयी है. इस बार नेपाल के मीडिया ने पहल ली. 2 अगस्त को नेपाल के प्रमुख समाचार पत्रा ‘काठमांडो पोस्ट’ और ‘कांतिपुर’  की वेबसाइट ‘कांतिपुर आॅनलाइन’ में नयी दिल्ली स्थित विशेष संवाददाता के हवाले से एक समाचार प्रकाशित हुआ जो इस प्रकार था

‘भारत के गृह राज्यमंत्राी श्री प्रकाश जैसवाल ने एक सवाल के लिखित जवाब में लोकसभा में बताया कि भारतीय नक्सलवादियों (माओवादियों) के नेपाल के माओवादियों के साथ वैचारिक और रणनीतिक संबंधों के बारे में कहा जाता है. उन्होंने आगे बताया कि नक्सलवादियों के संबंध लश्करे-तयबा जैसे इस्लामी संगठनों से हैं.’ यह खबर बिल्कुल झूठी और सरकारी बयान के विपरीत है. लोकसभा में श्री प्रकाश जैसवाल ने जो कहा था वह इस प्रकार हैµ

‘भारतीय नक्सलवादियों के नेपाली माओवादियों के साथ वैचारिक और रणनीतिक संबंध बताये जाते हैं. ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि भारतीय नक्सलवादियों और लश्करे-तयबा के बीच किसी तरह का संबंध है.’

इस तरह की खबरें किसी भूलवश नहीं बल्कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत जारी की जाती हैं. आज के नेपाल के सन्दर्भ में इन खबरों का महत्व बहुत ज्यादा है क्योंकि नेपाल की राजनीति को अगर देखें तो ये बहुत संवेदनशील मुद्दे हैं. क्या भारतीय प्रेस परिषद पत्राकारिता के माध्यम से की जा रही इस तरह की साजिश पर कोई रोक लगाएगा?

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